Bank se loan Lena kaisa hindi
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📚बैंक से लोन लेना कैसा📚
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सवाल ..........
बैंक से लोन लेना कैसा है? मुफ़्तियान किराम की बारगा ह्-ए-में अर्ज़ की क़ुरआन वहदेस की रोशनी में जवाब इनायत फ़रमाएं बड़ा करम होगा
अलमस्तफ़ती मुहम्मद मुजस्सम उल-क़ादरी
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जवाब ..........
ऊला तो काफ़िरों की तीन किस्में हैं ज़मी, मुस्तामिन, और हर्बी
ज़मी वे काफ़िर हैं जो दार उल-इस्लाम में रहते हूँ और बादशाए इस्लाम ने उनकी जान-ओ-माल की हिफ़ाज़त अपने ज़िम्मे लिया हो और मुस्तामिन वे काफ़िर हैं कि कुछ दिनों के लिए अमान लेकर दार उल-इस्लाम में अगुए हूँ और ज़ाहिर है कि हिन्दोस्तान के कुफ़्फ़ार ना तो ज़मी है और ना मुस्तामिन बल्कि वे तीसरी कसम यानी काफ़िर हर्बी हैं जैसा कि रईस अलफ़केआ हज़रत मिला जीवन रहम अलल्ले अलैहि तहरीर फ़रमाते हैं इन ेम अलाहरबी विम्मा यअकलेआ इल्ला अलालमोनि (तफ़सीरात अहमद ये स300 )
और यहां हिन्दोस्तान में हुकूमत काफ़िरों की है। और मुस्लमान-ओ-काफ़िर के दरमयान सूद नहीं जैसा कि हदीस शरीफ़ में है "ला रुबा बैन अलमसलम वालहरबी फ़ीदार अल-हर्ब
औरदार अल-हर्ब की क़ैद वाक़ई है ना कि अहितराज़ी लीज़ा यहां की हुकूमत के बैंकों से नफ़ा लेना जायज़ है लेकिन इस को देना जायज़ नहीं हाँ अगर थोड़ा नफ़ा देने में अपना नफ़ा ज़्यादे हो तो जायज़ है
जैसा कि रदालमहतार में है अलज़ाहिर इन अलाबाह यफ़ेद नील अलमसलम अलज़यादऩ वक़द अल्ज़म अलासहाब फ़ी अलदरस इन मर उद्यम मन हल अलरबा-ओ-अलकमार मा इज़ा हसलत अलज़यादऩ ललमसलम (रदालमहतार, ज4 स188)
लिहाज़ा बैंक या किसी कंपनी से लोन लेकर अपना बिज़नस चलाना उस वक़्त जायज़ है जबकि उसकी ज़रूरत हो या उसकी हाजत हो कि बग़ैर उसके काम नहीं चलेगा या चलेगा लेकिन बहुत दुशवारी से चलेगा और ये सूरत हाजत शदीदे की है और इस में नफ़ा मुस्लिम भी ज़्यादे है तो जायज़ है
हुज़ूर मुफ़्ती-ए-आज़म ेंद् अलीए अलरहमे भी बैंक से लोन लेने की इजाज़त इस में मुस्लमानों को नफ़ा कसीर होने की बिना पर देते थे लेकिन ये इजाज़त मुतल्लक़ा नहीं है ये इस तौर पर मशरूत है कि जिस काम के लिए लोन ले रहा है ये उसकी शरई ज़रूरत हो कि उसके बग़ैर कोई चारा ना हो या हो कि काम तो चल जाएगा लेकिन बहुत मशक़्क़त से चलेगा
और लेते वक़्त उसे पूरा एतिमाद हो कि मुद्दत मुक़िर रे में किस्तें अदा कर देगा तो जायज़ है। कि इस में बैंक का थोड़ा फ़ाइदे है लेकिन मुस्लमानों का नफ़ा ज़्यादा है
इसी तरह फतावी मर्कज़ तर्बीयत इफ्ता-ए-में है कि "गर्वनमैंट के बैंक फ़ाज़िल माल देने की शर्त पर क़र्ज़ लिया तो ये इस शर्त पर है कि बैंक को जो ज़ाइद रक़म सूद देनी पड़ती है इस ज़ाइद रक़म के बराबर या इस से ज़्यादे नफ़ा का हुसूल यक़ीनी तौर पर मालूम हो जब तू फ़ाज़िल माल देने की शर्त पर क़र्ज़ लेना जायज़ है वर्ना नाजायज़ (फतावी मर्कज़ तर्बीयत इफ्ता-ए-ज2 )
और बिहार शरीयत में है कि अगर इस तरह भी क़र्ज़ ना मिल सके तो सही शरई मजबूरी की सूरत में सोदी क़र्ज़ लेना जायज़ है (बिहार श्रेवता11 )
और अलाशबाए में है "फ़ी अलकनी-ओ-अलबग़ी यजोज़ि ललमहताज अलास्तकराज़ बॉलर बह ( अलाशबाए वालनज़ायर स92 )
और आला हज़रत फ़ाज़िल बरेलवी अलीए अलरहमे तहरीर फ़रमाते हैं "सूद देने वाला अगर हकीक सही शरई मजबूरी के सबब देता है इस पर इल्ज़ाम नहीं दर मुख़तार में है यजोज़ि ललमहताज अलास्तकराज़ बॉलर बह और अगर बला मजबूरी शरई सूद लेता है मसला तिजारत बढ़ाने या जायदाद में इज़ाफ़ा करने या महल ऊंचा बनवाने या औलाद की शादी में बहुत कुछ लगाने के वास्ते सोदी क़र्ज़ लेता है तो वे भी सूद खाने वाले के मिसल है (फतावी रिज़वीह ज3 स243 )
और ऐसा ही फतावी फ़ैज़ अलरसोल ज2 मैं लिखा है
वल्लाह आलम बालस्वाब
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